
गुटबाजी की खाई में धंसती राजनीति: (राजनैतिक दलों की गुटीय राजनीति पर निष्पक्ष विश्लेषण )
धरमजयगढ़ नगरीय निकाय चुनाव में पार्टी से बड़ा गुट,?
धरमजयगढ़। नगर निकाय चुनाव में इस बार जीत-हार से ज्यादा गुटबाजी की खाई चर्चा का विषय बन गई है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही दलों में पार्टी हित से ज्यादा व्यक्तिगत गुटों की प्राथमिकता देखने को मिली। नेता अपने-अपने गुट को जिताने और विरोधी गुट को हराने में इतने व्यस्त रहे कि चुनावी मुद्दे ही हाशिए पर चले गए।
गुटों की रस्साकशी,पार्टी के लिए चुनौती
धरमजयगढ़ में इस बार चुनावी समर एक अनोखे मोड़ पर आ खड़ा हुआ है। यहां कांग्रेस और भाजपा के प्रत्याशियों से ज्यादा चर्चा उनके गुटों की हो रही है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा जहां ढीला पड़ा दिखा, वहीं व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चलते गुटों के बीच खींचतान तेज हो गई।
नेतृत्व की परीक्षा, कौन कितना मजबूत?
गुटीय राजनीति के चलते उम्मीदवारों को पार्टी के भीतर ही चुनौती का सामना करना पड़ा। कई स्थानों पर अपने ही दल के लोग भीतरघात में जुटे रहे। पार्टी की एकजुटता से ज्यादा व्यक्तिगत वफादारी को तरजीह दी गई, जिससे चुनावी समीकरण प्रभावित होते दिखे। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यह गुटबाजी किस हद तक चुनावी नतीजों को प्रभावित करेगी।
क्या होगा परिणाम?
अब यह चुनावी नतीजे ही बताएंगे कि कौन कितना गहरा गड्ढा खोद पाया और किसकी सियासी जमीन खिसकी। लेकिन इतना तय है कि इस बार के चुनावों में जीत या हार से ज्यादा, पार्टियों के भीतर की फूट ही सबसे बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है। सवाल यह है कि क्या परिणामों के बाद भी यही गुटीय राजनीति हावी रहेगी, या फिर कोई ठोस आत्ममंथन होगा !
धरमजयगढ़ में गुटबाजी की सियासत: वरिष्ठ नेता मानमन्नौवल खोजते रहे, तमाशबीन बनते रहे!
धरमजयगढ़ नगर निकाय चुनाव में इस बार मुद्दों से ज्यादा गुटबाजी और अंतर्कलह ने सुर्खियां बटोरीं। मुख्य दलों के वरिष्ठ नेता मानमन्नौवल की तलाश में छटपटाते दिखे। सम्मान न मिलने का दर्द कुछ ने खुलकर बयां किया, तो कुछ ने पर्दे के पीछे रहकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। नतीजा यह हुआ कि पार्टी हित पीछे छूट गया और गुटीय राजनीति आगे बढ़ गई।
धरमजयगढ़ की राजनीति में यह नया नहीं है कि चुनावी माहौल में सम्मान की तलाश शुरू हो जाती है। लेकिन इस बार यह तलाश इतनी हावी रही कि कई वरिष्ठ नेता खुद को हाशिए पर महसूस करने लगे। कुछ नेताओं ने खुलकर नाराजगी जाहिर की, तो कुछ ने भीतरघात कर अपनी ही पार्टी को कमजोर करने की रणनीति अपनाई। सोशल मीडिया से लेकर स्थानीय बैठकों तक, कई बार अप्रत्यक्ष रूप से अपनी ही पार्टी के खिलाफ प्रचार किया गया। पार्टी विरोधी गतिविधियों में संलिप्त ये लोग वही लोग हैं , जो चुनाव परिणाम के अनुकूल होने पर अपने आपको फ्रंटलाइन में रख कर खुद को पार्टी का खेवनहार साबित करने का प्रयास करेंगे यह स्थिति किसी एक दल विशेष की नहीं बल्कि आज की अवसरवादी राजनीति में लिप्त सभी दलों की है!
जब चुनावी रणनीति बनाने और पार्टी को मजबूत करने का समय था, तब कई वरिष्ठ नेता हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। उन्होंने न तो कार्यकर्ताओं को जोड़ने का प्रयास किया और न ही गुटीय राजनीति को रोकने की कोशिश की। कई ऐसे भी रहे, जिन्होंने स्थिति को सुधारने के बजाय चुप्पी साधे रखी और तमाशबीन बने रहे।
क्या सबक लेगी पार्टियां ?
अब यह देखना होगा कि चुनावी नतीजों के बाद यह गुटबाजी और नाराजगी किस दिशा में जाती है। क्या पार्टी नेतृत्व इन तमाम घटनाओं से कोई सबक लेगा और अंदरूनी सुधार की कोशिश करेगा, या फिर यह परिपाटी भविष्य में भी जारी रहेगी? एक बात तो तय है—धरमजयगढ़ का यह चुनाव सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि पार्टियों के अनुशासन और एकजुटता की भी परीक्षा बन चुका है।
(विशेष – लेखक वरिष्ठ पत्रकार औऱ स्तम्भस्कार हैं)











